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   🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹

❄सांसारिक सुख दुःखोंके कारण हैं :

संयोगजन्य सुख लेनेवाला व्यक्ति अपना और संसारका‒दोनोंका नुकसान करता है । जितने भी संयोगजन्य सुख हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके कारण हैं‒‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । सुख भोगनेवाला अपने लिये और संसारके लिये भी दुःखोंका कारण बनता है अर्थात्‌ सबको दुःख देता है, सबकी हिंसा करता है । इसलियेसंसारका सुखभोग बिना हिंसाके नहीं होता । पर जो सब जगह परमात्माको देखता है, वह अपनी और दूसरेकी हिंसा नहीं करता‒

समं पश्यन्हि सर्वत्रसमवस्थितमिश्वरम् ।

न हिनस्त्यात्मनात्मं ततो याति परा गतिम् ॥

(गीता १३/२८)

सब जगह परमात्माको देखनेवाला एक विशेष आनन्दमें स्थित रहता है । वह आनन्द हिंसासे रहित है; क्योंकि वह आनन्द या सुख अपना स्वरूप है‒

ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।

चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

(मानस ७/११७/१)

सांसारिक सुख भोगनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंके मनमें दुःख होता है । अपने पास भी वैसा सुख नहोनेके कारण दूसरेके हृदयमें जलन होती है, दुःख होता है । अतः दूसरेके दुःखका कारण बननेवाला सुखका भोगी व्यक्ति हिंसा करनेवाला हुआ । अब कोई कहे कि जीवन्मुक्त महात्मा हो और उसके पास सांसारिक सुखकी सामग्री भी हो, तो उसे देखकर भी दूसरेको दुःख, जलन होती है । पर वास्तवमें महात्मा दूसरोंके दुःखका कारण नहीं होता । कारण यह कि जीवन्मुक्त महात्मा सांसारिक सुखका भोग नहीं करता । उसकी दृष्टिमें समस्त सांसारिक सुख दुःखरूप ही होते हैं‒‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’ (योगदर्शन २/१५) । अतः उनकी दृष्टिमें संसारका सुख है ही नहीं । वह तो अपने-आपमें निज-सुखसे सुखी रहता है । उसका सुख परमात्माका है । जो दुःखी हो रहे हैं, उनका भी तो स्वरूप सुखरूप ही है‒‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ ।पर वे अपने निज-सुखसे विमुख होकर ही दुःख पा रहे हैं । यदि वे भी सांसारिक सुखसे विमुख होकर अपने सुखमय स्वरूपमें स्थित हो जायँ, तो दोनों ही सुखी हैं । इस सुखका बँटवारा नहीं होता । किसी महापुरुषके पास संसारके सुख और दुःख आ भी जाते हैं, तो वे उसे सुख या दुःख नहीं दे सकते । वह तो समुद्रकी भाँती शान्त और पूर्ण रहता है‒

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं

समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

(गीता २/७०)

जैसे सब जल आकर समुद्रमें मिलते हैं, तो भी समुद्र अपनी मर्यादामें स्थित रहता है । ऐसे ही संसारके सब सुख आनेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुष अपनी मर्यादामें स्थित रहता है, शान्त रहता है । परन्तु भोगोंकी कामनावाला पुरुष कभी सुखी नहीं हो सकता । भोग नहीं होते, तब उनके अभावसे दुःखी होता है और भोग होते हैं, तब अभिमान करके दुःख पाता है, जैसे दादकी बीमारीमें खुजली और जलन दोनों होती हैं; खुजली अच्छी लगती है और जलन बुरी । इसलिये सांसारिक भोग मिलनेसे जो सुख होता है, वह भी एक प्रकारकी व्यथा ही है । जीवन्मुक्त महात्माको कितने ही पदार्थ मिल जायँ, वह शान्त रहता है और पदार्थ न मिलें, तब भी वह शान्त रहता है । उसकी शान्ति पदार्थोंके अधीन नहीं होती । वह तो साधन-अवस्थामें भी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है, फिर सिद्ध-अवस्थामें तो सम होगा ही ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे

( शेष आगे के ब्लाग में )

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