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   🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹

❄सेवा (परहित) :

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          दूसरोंका अहित करनेसे अपना अहित और दूसरोंका हित करनेसे अपना हित होता है‒यह नियम है ।

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      संसारका सम्बन्ध ‘ऋणानुबन्ध’ है । इस ऋणानुबन्धसे मुक्त होनेका उपाय है‒सबकी सेवा करना और किसीसे कुछ न चाहना ।

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साधक परमात्माके सगुण या निर्गुण किसी भी रूपकी प्राप्ति चाहता हो, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत होना अत्यन्त आवश्यक है ।

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साधकको संसारकी सेवाके लिये ही संसारमें रहना है, अपने सुखके लिये नहीं ।

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सच्चे हृदयसे भगवान्‌की सेवामें लगे हुए साधकके द्वारा प्राणिमात्रकी सेवा होती है; क्योंकि सबके मूल भगवान्‌ ही हैं ।

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साधकको अपने ऊपर आये हुए बड़े-से-बड़े दुःखको भी सह लेना चाहिये और दूसरेपर आये छोटे-से-छोटे दुःखको भी सहन नहीं करना चाहिये ।

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दूसरोंको सुख पहुँचानेकी इच्छासे अपनी सुखेच्छा मिटती है ।

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किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो‒यह भाव महान्‌ भजन है ।

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जैसे मनुष्य आफिस जाता है तो वहाँ केवल आफिसका ही काम करता है, ऐसे ही इस संसारमें आकर केवल संसारके लिये ही काम करना है, अपने लिये नहीं । फिर सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जायगा ।

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समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य‒इन चारोंको अपने लिये मानना इनका दुरुपयोग है और दूसरोंके हितमें लगाना इनका सदुपयोग है ।

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संयोगजन्य सुखके मिलनेसे जो प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता अगर दूसरोंको सुख पहुँचानेमें होने लग जाय तो फिर कल्याणमें सन्देह नहीं है ।

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हमें जो सुख-सुविधा मिली है, वह संसारकी सेवा करनेके लिये ही मिली है ।

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मनुष्यशरीर अपने सुख-भोगके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत सेवा करनेके लिये, दूसरोंको सुख देनेके लिये मिला है ।

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मनुष्यको भगवान्‌ने इतना बड़ा अधिकार दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी, मनुष्योंकी, ऋषि-मुनियोंकी, सन्त-महात्माओंकी, देवताओंकी, पितरोंकी, भूत-प्रेतोंकी, सबकी सेवा कर सकता है । और तो क्या, वह साक्षात् भगवान्‌की भी सेवा कर सकता है !

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(शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे

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