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❄ भोगासक्ति कैसे छूटें ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्माकी प्राप्तिको लोग कठिन मानते हैं; परन्तु वास्तवमें परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत भोगासक्तिका त्याग कठिन है ।भगवान्‌ने कहा है‒

भोगेश्वर्यप्रसक्तानांतयापहृतचेतसाम् ।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

(गीता २/४४)

जिनकी भोग और संग्रहमें आसक्ति है, वे परमात्माको प्राप्त करनेका निश्चय भी नहीं कर सकते, परमात्माको प्राप्त करना तो दूर रहा !हमें परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है, अपना कल्याण ही करना है‒यह बात उनमें दृढ़ नहीं रहती । अतः जबतक भीतरमें भोगोंका आकर्षण, महत्त्व बना हुआ है, तबतक बातें भले ही सीख जायँ, पर परमात्मप्राप्तिका निश्चय नहीं कर सकते । जब निश्चय ही पक्का नहीं रहेगा, तो फिर परमात्मप्राप्ति होगी ही कैसे ?

अगर आप जड़, असत्, क्षणभंगुर पदार्थोंसे ऊँचे उठ जाओ तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन नहीं है । जो स्वतःसिद्ध है, उसको प्राप्त करनेमें क्या कठिनता है ? कठिनता यही है कि जो नहीं है, उसमें आकर्षण हो गया । ‘है’ की प्राप्ति कठिन नहीं है, ‘नहीं’ का त्याग करना कठिन है । जब ‘नहीं’ का भी त्याग नहीं कर सकते, तो फिर और क्या त्याग करोगे ? आश्चर्यकी बात है कि आप जाने हुए असत्‌का त्याग नहीं कर सकते ! जिनको जानते हो कि ये असत् हैं, नाशवान् हैं, सदा साथ रहनेवाले नहीं हैं, आने-जानेवाले हैं, उनका भी त्याग नहीं करते‒यह बहुत बड़ी गलती है ।

असत्‌का आकर्षण कैसे छूटे ? इसके लिये कर्मयोगका पालन करें ।गीतामें भगवान्‌ने कर्मयोगकी बात विशेषतासे कही है और उसकी महिमा गायी है‒‘कर्मयोगो विशिष्यते’ (५/२) ।कर्मयोगकी बात गीतामें जितनी स्पष्ट मिलती है, उतनी अन्य ग्रन्थोंमें नहीं मिलती । कर्मयोगका तात्पर्य है‒दूसरोंको सुख देना और बदलेमें कुछ भी न चाहना । माँ-बापको सुख देना है । स्त्री, पुत्र, भाई-भतीजेको भी सुख देना है । पड़ोसियोंको भी सुख देना है । सबको सुख देना है । इसको काममें लाओ तो असत्‌का आकर्षण छूट जायगा ।

किसी तरहसे दूसरोंको सुख मिल जाय, आराम मिल जाय‒ऐसा जो भाव है, यह बहुत दामी चीज है, मामूली नहीं है ।अगर आप चाहते हो कि विषय सामने आनेपर हम विचलित न हों, तो इस सिद्धान्तको पकड़ लो कि दूसरोंको सुख कैसे हो ? दूसरोंको आराम कैसे हो ?वस्तु मेरे पास हरदम नहीं रहेगी, अतः दूसरेके काम आ जाय तो अच्छा है‒ऐसा भाव होनेसे सबके हितमें रति हो जायगी । जब दूसरोंके हितमें आपकी रति, प्रीति हो जायगी, तब भोगपदार्थ सामने आनेपर भी उनका त्याग करना सुगम हो जायगा । परन्तु ‘मेरेको सुख कैसे हो ? मेरेको सम्मान कैसे मिले ? मेरी बड़ाई कैसे हो ? मेरी बात कैसे रहे ? मेरेको आराम कैसे मिले ?’‒यह भाव रहेगा तो त्रिकालमें भी कल्याण नहीं होगा, क्योंकि ऐसा भाव रखना पशुता है, मनुष्यता नहीं है ।

दूसरेके हितका भाव होनेसे आपकी सुख भोगनेकी इच्छाका नाश हो जायगा ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे

( शेष आगे के ब्लाग में )

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