🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹
🌟 भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्जीकी दास्य-रति :
(गत ब्लॉगसे आगेका)
सभी रतियोंकी दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं—संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । संयोग-रतिमें पत्नी भोजनादिके द्वारा पतिकी सेवा करती है और वियोग-रतिमें (पतिके दूर होनेसे) वह पतिका स्मरण-चिन्तन करती है । वियोग-रतिमें प्रेमास्पदकी निरन्तर मानसिक सेवा होती है । अतः संयोग-रतिकी अपेक्षा वियोग-रतिको श्रेष्ठ माना गया है । चैतन्य महाप्रभुने भी इस वियोग-रतिका विशेष आदर किया है । इसमें भी ‘परकीया माधुर्य-रति’ की वियोगावस्था सबसे ऊँची है, जिसमें प्रेमी और प्रेमास्पदमें नित्ययोग रहता है । प्रेम-रसकी वृद्धिके लिये इस नित्ययोगमें चार अवस्थाएँ होती हैं‒
१-नित्ययोगमें योग
२-नित्ययोगमें वियोग
३- वियोगमें नित्ययोग
४-वियोगमें वियोग
प्रेमी और प्रेमास्पदका परस्पर मिलन होना ‘नित्ययोगमें योग’ है । प्रेमास्पदसे मिलन होनेपर भी प्रेमीमें यह भाव आ जाता है कि प्रेमास्पद कहीं चले गये हैं‒यह ‘नित्ययोगमें वियोग’ है । प्रेमास्पद सामने नहीं हैं, पर मनसे उन्हींका गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मनसे प्रत्यक्ष मिलते हुए दिख रहे हैं‒यह ‘वियोगमें नित्ययोग’ है ।प्रेमास्पद थोड़े समयके लिये सामने नहीं आये, पर मनमें ऐसा भाव है कि उनसे मिले बिना युग बीत गया‒यह ‘वियोगमें वियोग’ है । वास्तवमें इन चारों अवस्थाओंमें प्रेमास्पदके साथ नित्ययोग ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वियोग कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये ही प्रेमी और प्रेमास्पदमें संयोग-वियोगकी लीला हुआ करती है ।
हनुमान्जीमें संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनों ही विलक्षणरूपसे विद्यमान हैं ।संयोगकालमें वे भगवान्की सेवामें ही रत रहते हैं और वियोगकालमें भगवान्के स्मरण-चिन्तनमें डूबे रहते हैं । संयोग-रतिमें प्रेमी खुद भी सुख लेता है; जैसे पतिको सुख देनेके साथ-साथ पत्नी खुद भी सुखका अनुभव करती है । परन्तु हनुमान्जीकी संयोग-रतिमें किंचिन्मात्र भी अपना सुख नहीं है । केवल भगवान्के सुखमें ही उनका सुख है‒‘तत्सुखे सुखित्वम्’ । वे तो भगवान्को सुख पहुँचाने, उनकी सेवा करनेके लिये सदा आतुर रहते हैं, छटपटाते रहते हैं‒
राम काज करिबे को आतुर । (हनुमानचालीसा)
राम काजू कीन्हें बिनु मोही कहाँ बिश्राम ॥ (मानस ५/१)
एक बार सुबह हनुमान्जीको भूख लग गयी तो वे माता सीताजीके पास गये और बोले कि माँ ! मेरेको भूख लगी है, खानेके लिये कुछ दो । सीताजीने कहा कि बेटा ! मैंने अभीतक स्नान नहीं किया है । तुम ठहरो, मैं अभी स्नान करके भोजन देती हूँ । सीताजीने स्नान करके श्रृंगार किया । उनकी माँगमें सिन्दूर देखकर सहज सरल हनुमान्जीने पूछा कि माँ ! आपने यह सिन्दूर क्यों लगाया है ? सीताजीने कहा कि बेटा ! इसको लगानेसे तुम्हारे स्वामीकी आयु बढ़ती है । ऐसा सुनकर हनुमान्को विचार आया कि अगर सिन्दूरकी एक रेखा खींचनेसे रामजीकी आयु बढ़ती है, तो फिर पूरे शरीरमें सिन्दूर लगानेसे उनकी आयु कितनी बढ़ जायगी ! सीताजी रसोईमें गयीं तो हनुमान्जी श्रृंगार कक्षमें चले गये और उन्होंने सिन्दूरकी डिबियाको नीचे पटक दिया । सब सिन्दूर नीचे बिखर गया और हनुमान्जी वह सिन्दूर अपने पूरे शरीरपर लगा लिया ! अब मेरे प्रभुकी आयु खूब बढ़ जायगी‒ऐसा सोचकर हनुमान्जी बड़े हर्षित हो गये और भूख-प्यासको भूलकर सीधे रामजीके दरबारमें पहुँच गये ! उनको इस वेशमें देखकर सभी हँसने लगे । रामजीने पूछा कि हनुमान् ! आज तुमने अपने शरीरपर सिन्दूरका लेप कैसे कर लिया ? हनुमान्जी बोले कि प्रभो ! माँके थोड़ा-सा सिन्दूर लगानेसे आपकी आयु बढ़ती है‒ऐसा जानकर मैंने पूरे शरीरपर ही सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया है, जिससे आपकी आयु खूब खूब बढ़ जाय !रामजीने कहा कि बहुत अच्छा ! अब आगेसे जो भक्त तुम्हारेको तेल और सिन्दूर चढ़ायेगा, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
https://plus.google.com/113265611816933398824
मोबाइल नं. : 9009290042
👉🏻 एक बार प्रेम से बोलिए ...
🙌🏻 जय जय श्री राधे 🙌🏻
🌹 प्यारी .. श्री .. राधे ..🌹
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सभी रतियोंकी दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं—संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । संयोग-रतिमें पत्नी भोजनादिके द्वारा पतिकी सेवा करती है और वियोग-रतिमें (पतिके दूर होनेसे) वह पतिका स्मरण-चिन्तन करती है । वियोग-रतिमें प्रेमास्पदकी निरन्तर मानसिक सेवा होती है । अतः संयोग-रतिकी अपेक्षा वियोग-रतिको श्रेष्ठ माना गया है । चैतन्य महाप्रभुने भी इस वियोग-रतिका विशेष आदर किया है । इसमें भी ‘परकीया माधुर्य-रति’ की वियोगावस्था सबसे ऊँची है, जिसमें प्रेमी और प्रेमास्पदमें नित्ययोग रहता है । प्रेम-रसकी वृद्धिके लिये इस नित्ययोगमें चार अवस्थाएँ होती हैं‒
१-नित्ययोगमें योग
२-नित्ययोगमें वियोग
३- वियोगमें नित्ययोग
४-वियोगमें वियोग
प्रेमी और प्रेमास्पदका परस्पर मिलन होना ‘नित्ययोगमें योग’ है । प्रेमास्पदसे मिलन होनेपर भी प्रेमीमें यह भाव आ जाता है कि प्रेमास्पद कहीं चले गये हैं‒यह ‘नित्ययोगमें वियोग’ है । प्रेमास्पद सामने नहीं हैं, पर मनसे उन्हींका गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मनसे प्रत्यक्ष मिलते हुए दिख रहे हैं‒यह ‘वियोगमें नित्ययोग’ है ।प्रेमास्पद थोड़े समयके लिये सामने नहीं आये, पर मनमें ऐसा भाव है कि उनसे मिले बिना युग बीत गया‒यह ‘वियोगमें वियोग’ है । वास्तवमें इन चारों अवस्थाओंमें प्रेमास्पदके साथ नित्ययोग ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वियोग कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये ही प्रेमी और प्रेमास्पदमें संयोग-वियोगकी लीला हुआ करती है ।
हनुमान्जीमें संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनों ही विलक्षणरूपसे विद्यमान हैं ।संयोगकालमें वे भगवान्की सेवामें ही रत रहते हैं और वियोगकालमें भगवान्के स्मरण-चिन्तनमें डूबे रहते हैं । संयोग-रतिमें प्रेमी खुद भी सुख लेता है; जैसे पतिको सुख देनेके साथ-साथ पत्नी खुद भी सुखका अनुभव करती है । परन्तु हनुमान्जीकी संयोग-रतिमें किंचिन्मात्र भी अपना सुख नहीं है । केवल भगवान्के सुखमें ही उनका सुख है‒‘तत्सुखे सुखित्वम्’ । वे तो भगवान्को सुख पहुँचाने, उनकी सेवा करनेके लिये सदा आतुर रहते हैं, छटपटाते रहते हैं‒
राम काज करिबे को आतुर । (हनुमानचालीसा)
राम काजू कीन्हें बिनु मोही कहाँ बिश्राम ॥ (मानस ५/१)
एक बार सुबह हनुमान्जीको भूख लग गयी तो वे माता सीताजीके पास गये और बोले कि माँ ! मेरेको भूख लगी है, खानेके लिये कुछ दो । सीताजीने कहा कि बेटा ! मैंने अभीतक स्नान नहीं किया है । तुम ठहरो, मैं अभी स्नान करके भोजन देती हूँ । सीताजीने स्नान करके श्रृंगार किया । उनकी माँगमें सिन्दूर देखकर सहज सरल हनुमान्जीने पूछा कि माँ ! आपने यह सिन्दूर क्यों लगाया है ? सीताजीने कहा कि बेटा ! इसको लगानेसे तुम्हारे स्वामीकी आयु बढ़ती है । ऐसा सुनकर हनुमान्को विचार आया कि अगर सिन्दूरकी एक रेखा खींचनेसे रामजीकी आयु बढ़ती है, तो फिर पूरे शरीरमें सिन्दूर लगानेसे उनकी आयु कितनी बढ़ जायगी ! सीताजी रसोईमें गयीं तो हनुमान्जी श्रृंगार कक्षमें चले गये और उन्होंने सिन्दूरकी डिबियाको नीचे पटक दिया । सब सिन्दूर नीचे बिखर गया और हनुमान्जी वह सिन्दूर अपने पूरे शरीरपर लगा लिया ! अब मेरे प्रभुकी आयु खूब बढ़ जायगी‒ऐसा सोचकर हनुमान्जी बड़े हर्षित हो गये और भूख-प्यासको भूलकर सीधे रामजीके दरबारमें पहुँच गये ! उनको इस वेशमें देखकर सभी हँसने लगे । रामजीने पूछा कि हनुमान् ! आज तुमने अपने शरीरपर सिन्दूरका लेप कैसे कर लिया ? हनुमान्जी बोले कि प्रभो ! माँके थोड़ा-सा सिन्दूर लगानेसे आपकी आयु बढ़ती है‒ऐसा जानकर मैंने पूरे शरीरपर ही सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया है, जिससे आपकी आयु खूब खूब बढ़ जाय !रामजीने कहा कि बहुत अच्छा ! अब आगेसे जो भक्त तुम्हारेको तेल और सिन्दूर चढ़ायेगा, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा !
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