🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹
🌟 भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्जीकी दास्य-रति :
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब बहुत आग्रह किया, तब हनुमान्जी वहाँसे चले गये और छतपर जाकर बैठ गये । वहाँ बैठकर उन्होंने लगातार चुटकी बजाना शुरू कर दिया; क्योंकि रामजीको न जाने कब जम्हाई आ जाय ! यहाँ रामजीको ऐसी जम्हाई आयी कि उनका मुख खुला ही रह गया, बन्द हुआ ही नहीं ! यह देखकर सीताजी बड़ी व्याकुल हो गयीं कि न जाने रामजीको क्या हो गया है ! भरतादि सभी भाई आ गये । वैद्योंको बुलाया गया तो वे भी कुछ कर नहीं सके । वशिष्ठजी आये तो उनको आश्चर्य हुआ कि ऐसी चिन्ताजनक स्थितिमें हनुमान्जी दिखायी नहीं दे रहे हैं ! और सब तो यहाँ हैं, पर हनुमान्जी कहाँ है ? खोज करनेपर हनुमान्जी छतपर चुटकी बजाते हुए मिले । उनको बुलाया गया और वे रामजीके पास आये तो चुटकी बजाना बन्द करते ही रामजीका मुख स्वाभाविक स्थितिमें आ आया ! अब सबकी समझमें आया कि यह सब लीला हनुमान्जीकी चुटकी बजानेके कारण ही थी ! भगवान्ने यह लीला इसलिये की थी कि जैसे भूखेको अन्न देना ही चाहिये, ऐसे ही सेवाके लिये आतुर हनुमान्जीको सेवाका अवसर देना ही चाहिये, बन्द नहीं करना चाहिये । फिर भरतादि भाइयोंने ऐसा आग्रह नहीं रखा । तात्पर्य है कि संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनोंमें ही हनुमान्जी भगवान्की सेवा करनेमें तत्पर रहते हैं ।
इस प्रकार हनुमान्जीका दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य-भाव बहुत विलक्षण है ! इस कारण हनुमान्जीकी ऐसी विलक्षण महिमा है कि संसारमें भगवान्से भी अधिक उसका पूजन होता है । जहाँ भगवान् श्रीरामके मन्दिर हैं, वहाँ तो उनके साथ हनुमान्जी विराजमान हैं ही, जहाँ भगवान् श्रीरामके मन्दिर नहीं हैं, वहाँ भी हनुमान्जीके स्वतन्त्र मन्दिर हैं । उनके मन्दिर प्रत्येक गाँव और शहरमें, जगह-जगह मिलते हैं । केवल भारतमें ही नहीं, प्रत्युत विदेशोंमें भी हनुमान्जीके अनेक मन्दिर हैं । इस प्रकार वे रामजीके साथ भी पूजित होते हैं और स्वतन्त्र रूपसे भी पूजित होते हैं । इसलिये कहा गया है‒
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम ते अधिक राम कर दासा ॥
(मानस ७/१२०/८)
भगवान् शंकर कहते हैं‒
हनुमान् सम नाहिं बड़भागी ।
नहीं कोउ राम चरन अनुरागी ॥
गिरजा जासु प्रीति सेवकाई ।
बार बार प्रभु निज मुख गाई ॥
(मानस ७/५०/४-५)
स्वयं भगवान् श्रीराम हनुमान्जीसे कहते हैं‒
मदङ्गे जीर्णतां यातु यत् त्वयोपकृतं कपे ।
नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ॥
(वाल्मीकि॰ उत्तर॰ ४०/२४)
‘कपिश्रेष्ठ ! मैं तो यही चाहता हूँ कि तुमने जो-जो उपकार किये हैं, वे सब मेरे शरीरमें ही पच जायँ ! उनका बदला चुकानेका मुझे कभी अवसर न मिले; क्योंकि उपकारका बदला पानेका अवसर मनुष्यको आपत्तिकालमें ही मिलता है (मैं नहीं चाहता कि तुम कभी संकटमें पड़ो और मैं तुम्हारे उपकारका बदला चुकाऊँ) ।’
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
https://plus.google.com/113265611816933398824
मोबाइल नं. : 9009290042
👉🏻 एक बार प्रेम से बोलिए ...
🙌🏻 जय जय श्री राधे 🙌🏻
🌹 प्यारी .. श्री .. राधे ..🌹
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जब बहुत आग्रह किया, तब हनुमान्जी वहाँसे चले गये और छतपर जाकर बैठ गये । वहाँ बैठकर उन्होंने लगातार चुटकी बजाना शुरू कर दिया; क्योंकि रामजीको न जाने कब जम्हाई आ जाय ! यहाँ रामजीको ऐसी जम्हाई आयी कि उनका मुख खुला ही रह गया, बन्द हुआ ही नहीं ! यह देखकर सीताजी बड़ी व्याकुल हो गयीं कि न जाने रामजीको क्या हो गया है ! भरतादि सभी भाई आ गये । वैद्योंको बुलाया गया तो वे भी कुछ कर नहीं सके । वशिष्ठजी आये तो उनको आश्चर्य हुआ कि ऐसी चिन्ताजनक स्थितिमें हनुमान्जी दिखायी नहीं दे रहे हैं ! और सब तो यहाँ हैं, पर हनुमान्जी कहाँ है ? खोज करनेपर हनुमान्जी छतपर चुटकी बजाते हुए मिले । उनको बुलाया गया और वे रामजीके पास आये तो चुटकी बजाना बन्द करते ही रामजीका मुख स्वाभाविक स्थितिमें आ आया ! अब सबकी समझमें आया कि यह सब लीला हनुमान्जीकी चुटकी बजानेके कारण ही थी ! भगवान्ने यह लीला इसलिये की थी कि जैसे भूखेको अन्न देना ही चाहिये, ऐसे ही सेवाके लिये आतुर हनुमान्जीको सेवाका अवसर देना ही चाहिये, बन्द नहीं करना चाहिये । फिर भरतादि भाइयोंने ऐसा आग्रह नहीं रखा । तात्पर्य है कि संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनोंमें ही हनुमान्जी भगवान्की सेवा करनेमें तत्पर रहते हैं ।
इस प्रकार हनुमान्जीका दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य-भाव बहुत विलक्षण है ! इस कारण हनुमान्जीकी ऐसी विलक्षण महिमा है कि संसारमें भगवान्से भी अधिक उसका पूजन होता है । जहाँ भगवान् श्रीरामके मन्दिर हैं, वहाँ तो उनके साथ हनुमान्जी विराजमान हैं ही, जहाँ भगवान् श्रीरामके मन्दिर नहीं हैं, वहाँ भी हनुमान्जीके स्वतन्त्र मन्दिर हैं । उनके मन्दिर प्रत्येक गाँव और शहरमें, जगह-जगह मिलते हैं । केवल भारतमें ही नहीं, प्रत्युत विदेशोंमें भी हनुमान्जीके अनेक मन्दिर हैं । इस प्रकार वे रामजीके साथ भी पूजित होते हैं और स्वतन्त्र रूपसे भी पूजित होते हैं । इसलिये कहा गया है‒
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम ते अधिक राम कर दासा ॥
(मानस ७/१२०/८)
भगवान् शंकर कहते हैं‒
हनुमान् सम नाहिं बड़भागी ।
नहीं कोउ राम चरन अनुरागी ॥
गिरजा जासु प्रीति सेवकाई ।
बार बार प्रभु निज मुख गाई ॥
(मानस ७/५०/४-५)
स्वयं भगवान् श्रीराम हनुमान्जीसे कहते हैं‒
मदङ्गे जीर्णतां यातु यत् त्वयोपकृतं कपे ।
नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ॥
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‘कपिश्रेष्ठ ! मैं तो यही चाहता हूँ कि तुमने जो-जो उपकार किये हैं, वे सब मेरे शरीरमें ही पच जायँ ! उनका बदला चुकानेका मुझे कभी अवसर न मिले; क्योंकि उपकारका बदला पानेका अवसर मनुष्यको आपत्तिकालमें ही मिलता है (मैं नहीं चाहता कि तुम कभी संकटमें पड़ो और मैं तुम्हारे उपकारका बदला चुकाऊँ) ।’
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