🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹
🌟 सत्संगकी महिमा :
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
(मानस ३/३४/४)
सन्त-महात्माओंका संग पहली भक्ति है ।
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
(मानस ७/४४/३)
भक्ति स्वतन्त्र है, सम्पूर्ण सुखोंकी खान है । कहते हैं‒
सतसंगत मुद मंगल मूला ।
सोई फल सिधि सब साधन फूला ॥
(मानस १/२/४)
सम्पूर्ण मंगलोंकी मूल सत्संगति है । वृक्षमें पहिले मूल होता है और अन्तिम लक्ष्य फल होता है । सत्संगति मूल भी है और फल भी है । जितने अन्य साधन हैं सब फूल-पत्ती हैं, जो मूल और फलके बीचमें रहनेवाली चीजें हैं । सत्संगतिमें ही सब साधन आ जाते हैं । इसलिये सत्संगकी बड़ी भारी महिमा है । सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं‒
सन्त समागम करिये भाई ।
यामें बैठो सब मिल आई ॥
सन्त-समागम करना चाहिये । यह नौकाकी तरह है, इसमें बैठकर पार हो जायेंगे । सत्संग चन्दनकी तरह पवित्र बना दे और पारसरूपी सत्संगसे कंचन-जैसा हो जाय‒ऐसा सत्संग है । आगे सुन्दरदासजी महाराज फिर कहते हैं‒
और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढहि राम दुहाई ।
रामजीकी सौगन्ध दे दी कि कल्याणका और कोई उपाय नहीं है । यह अचूक उपाय है । इसलिये सत्संगमें जाकर बैठ जाएँ तो निहाल हो जायें । सत्का संग करो । जहाँ भगवान्की चर्चा हो, सत्-चर्चा हो, सत्-चिन्तन हो, सत्कर्म हो और सत्संग हो तो सत्के साथ सम्बन्ध हो जाय । बस, इससे निहाल हो जाय जीव ।
जीवको जितने दुःख आते हैं, सब असत्के संगसे आते हैं और अविनाशीका संग करते ही स्वतः निहाल हो जाता है, क्योंकि वह भगवान्का अंश है ।
ईश्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस ७/११६/१)
अतः सत्संगसे, सत्का प्रेम होनेसे सत् प्राप्त हो जाता है । सत्संग मिल जाय, परमात्माका संग मिल जाय तो निहाल हो जाय । सत्से जहाँ सम्बन्ध होता है, वह सत्संग है । भगवान्के साथ जो संग है, वह सत्संग है । असली संग होता है असत्के त्यागसे । वैसे असत्के द्वारा भी सत्संगमें सहायता होती है, जैसे सत्-चर्चा करते हैं तो बिना वाणीसे कैसे करें ? सत्कर्म करते हैं तो बिना बाहरी क्रियासे सत्कर्म कैसे करें ? सत्-चिन्तन करते हैं तो मनके बिना कैसे करें ? पर सत्संगमें दूसरा नहीं है; अपने-आपहीमें मिल जाय, तल्लीन हो जाय । सत्संग, सत्-चिन्तन, सत्कर्म, सत्-चर्चा और सद्ग्रन्थोंका अवलोकन ‒इन सबका उद्देश्य सत्संग है । सत्की प्राप्तिके लिये असत्को दूर कर दे तो सत्संगका उद्देश्य पूरा हो जाता है ।
‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।’
असत्से विमुख होनेपर सत्का संग हो जाता है । राग, द्वेष, इर्षा आदिका जो कूड़ा-करकट भीतरमें भरा है, यह सत्संग नहीं होने देता । ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य चाहे तो इनका त्याग कर सकता है; परन्तु फिर भी इसे कठिनता मालूम देती है; कबतक ? जबतक पक्का विचार न हो जाय । पक्का विचार करनेपर यह कठिनता नहीं रहती । चाहे जो हो, हमें तो इधर ही चलना है, पक्का विचार हो जाय, फिर सुगमता हो जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
https://plus.google.com/113265611816933398824
मोबाइल नं. : 9009290042
👉🏻 एक बार प्रेम से बोलिए ...
🙌🏻 जय जय श्री राधे 🙌🏻
🌹 प्यारी .. श्री .. राधे ..🌹
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बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
(मानस ७/४४/३)
भक्ति स्वतन्त्र है, सम्पूर्ण सुखोंकी खान है । कहते हैं‒
सतसंगत मुद मंगल मूला ।
सोई फल सिधि सब साधन फूला ॥
(मानस १/२/४)
सम्पूर्ण मंगलोंकी मूल सत्संगति है । वृक्षमें पहिले मूल होता है और अन्तिम लक्ष्य फल होता है । सत्संगति मूल भी है और फल भी है । जितने अन्य साधन हैं सब फूल-पत्ती हैं, जो मूल और फलके बीचमें रहनेवाली चीजें हैं । सत्संगतिमें ही सब साधन आ जाते हैं । इसलिये सत्संगकी बड़ी भारी महिमा है । सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं‒
सन्त समागम करिये भाई ।
यामें बैठो सब मिल आई ॥
सन्त-समागम करना चाहिये । यह नौकाकी तरह है, इसमें बैठकर पार हो जायेंगे । सत्संग चन्दनकी तरह पवित्र बना दे और पारसरूपी सत्संगसे कंचन-जैसा हो जाय‒ऐसा सत्संग है । आगे सुन्दरदासजी महाराज फिर कहते हैं‒
और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढहि राम दुहाई ।
रामजीकी सौगन्ध दे दी कि कल्याणका और कोई उपाय नहीं है । यह अचूक उपाय है । इसलिये सत्संगमें जाकर बैठ जाएँ तो निहाल हो जायें । सत्का संग करो । जहाँ भगवान्की चर्चा हो, सत्-चर्चा हो, सत्-चिन्तन हो, सत्कर्म हो और सत्संग हो तो सत्के साथ सम्बन्ध हो जाय । बस, इससे निहाल हो जाय जीव ।
जीवको जितने दुःख आते हैं, सब असत्के संगसे आते हैं और अविनाशीका संग करते ही स्वतः निहाल हो जाता है, क्योंकि वह भगवान्का अंश है ।
ईश्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस ७/११६/१)
अतः सत्संगसे, सत्का प्रेम होनेसे सत् प्राप्त हो जाता है । सत्संग मिल जाय, परमात्माका संग मिल जाय तो निहाल हो जाय । सत्से जहाँ सम्बन्ध होता है, वह सत्संग है । भगवान्के साथ जो संग है, वह सत्संग है । असली संग होता है असत्के त्यागसे । वैसे असत्के द्वारा भी सत्संगमें सहायता होती है, जैसे सत्-चर्चा करते हैं तो बिना वाणीसे कैसे करें ? सत्कर्म करते हैं तो बिना बाहरी क्रियासे सत्कर्म कैसे करें ? सत्-चिन्तन करते हैं तो मनके बिना कैसे करें ? पर सत्संगमें दूसरा नहीं है; अपने-आपहीमें मिल जाय, तल्लीन हो जाय । सत्संग, सत्-चिन्तन, सत्कर्म, सत्-चर्चा और सद्ग्रन्थोंका अवलोकन ‒इन सबका उद्देश्य सत्संग है । सत्की प्राप्तिके लिये असत्को दूर कर दे तो सत्संगका उद्देश्य पूरा हो जाता है ।
‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।’
असत्से विमुख होनेपर सत्का संग हो जाता है । राग, द्वेष, इर्षा आदिका जो कूड़ा-करकट भीतरमें भरा है, यह सत्संग नहीं होने देता । ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य चाहे तो इनका त्याग कर सकता है; परन्तु फिर भी इसे कठिनता मालूम देती है; कबतक ? जबतक पक्का विचार न हो जाय । पक्का विचार करनेपर यह कठिनता नहीं रहती । चाहे जो हो, हमें तो इधर ही चलना है, पक्का विचार हो जाय, फिर सुगमता हो जाती है ।
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