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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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   🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹

🌟 गीताका तात्पर्य :

(गत ब्लॉगसे आगेका)

     सबके हितका भाव हरेक भाई-बहन रख सकते हैं । यह भाव गृहस्थ भी रख सकते हैं, साधु-संन्यासी भी रख सकते हैं, दरिद्र-से-दरिद्र मनुष्य भी रख सकते हैं, धनी-से-धनी मनुष्य भी रख सकते हैं । हमारे पास जो वस्तुएँ हैं, वे किसकी हैं‒इसका पता नहीं है, पर कोई अभावग्रस्त आदमी सामने आ जाय तो वस्तुको उसीकी समझकर उसको दे दें‒‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ।’ जैसे हमारे पास कोई सज्जन आता है और कहता है कि ‘भाई, आज मेरेको मेलेमें जाना है । मेरे पास एक हजार रुपये हैं, कोई जेब न कतर ले, इसलिये इन रुपयोंको आपके पास रखता हूँ ।’ वह रुपये रखकर चला जाता है । शामको वह आकर रुपये माँगता है और हम उसको रुपये वापस दे देते हैं तो क्या हमे दान कर दिया ? दान नहीं किया, प्रत्युत उसीकी वस्तु उसको दे दी ।

       शास्त्रमें आया है कि रसोई बननेके बाद यदि ब्रह्मचारी और संन्यासी आ जायँ तो उनको अन्न न देनेसे पाप लगता है, जिसकी शुद्धि चान्द्रायणव्रत करनेसे होती है । यदि उनको थोड़ा-सा अन्न भी दे दें तो इतनेमें हमारे धर्मका पालन हो जायगा और पाप नहीं लगेगा । इसमें कोई शंका कर सकता है कि हमने पैसे कमाये, उससे सब सामग्री लाये और रसोई बनायी, पर कोई संन्यासी आ जाय तो उसको न देनेसे पाप लग जायगा‒यह कैसा न्याय है ? इसका समाधान यह है कि जिसने संन्यास ले लिया, त्याग कर दिया और जो अपने पासमें कुछ नहीं रखता, उसके हकका धन कहाँ गया ? यदि वह चाहता तो दूकान, खेत आदिमें काम करके, पढ़ाने-लिखानेका काम करके अपने जीवन-निर्वाहके योग्य धन कमा सकता था, रुपयोंका संग्रह कर सकता था, पर वह उसने नहीं किया तो वे रुपये हमारे पास ही रहे ! इसलिये समयपर भोजनके लिये आ जाय तो उसको रोटी दे दें‒यह हमारा कर्तव्य है । नहीं देंगे तो उसका हमपर ऋण रहेगा, हमें पाप लगेगा ।

        साधुओंकी भिक्षावृत्तिको शास्त्रोंमें बहुत अधिक पवित्र बताया गया है; क्योंकि कई घरोंसे थोड़ा-थोड़ा लेनेसे देनेवालेपर कोई भार भी नहीं पड़ता और लेनेवालेकी उदरपूर्ति भी हो जाती है । इसलिये इसको‘माधुकरी वृत्ति’ भी कहते हैं । ‘मधुकर’ नाम भौरें अथवा मधुमक्खीका है । मधुमक्खी हरेक पुष्पसे थोड़ा-थोड़ा रस लेती है और किसी पुष्पका नुकसान भी नहीं करती । एक साधु थे । उनसे किसीने पूछा कि ‘आप भोजन कहाँ पाते हो ? पासमें एक पैसा तो है नहीं !’ साधुने कहा कि ‘भिक्षा पा लेते हैं ।’ उसने फिर पूछा कि ‘कभी भिक्षा न मिले तो ?’ साधु बोला‒‘तो भूखको ही पा लेते हैं !’ भूखको पानेका तात्पर्य है कि आज हम भोजन नहीं करेंगे, कल करेंगे ।

        संसारमें एक-दूसरेको दिये बिना, एक-दूसरेकी सेवा किये बिना किसीका भी निर्वाह नहीं हो सकता । राजा-महाराजा कोई क्यों न हो, अपने निर्वाहके लिये कुछ-न-कुछ सहायता लेनी ही पड़ती है ।इसलिये गीतामें आया है‒

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
                                                  (३/११)

      ‘अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें । इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे ।’

        कितनी विलक्षण बात है कि एक-दूसरेका पूजन (सेवा) करते-करते परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे

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