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 🌹🌸🌹संत अमृत वाणी🌹🌸🌹
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🌹सत्संगसे लाभ कैसे लें ?

( गत ब्लॉग से आगे )

सत्संगके समय ‘हम बदलनेवाले नहीं है’‒इसमें अपनी स्थिति करनी चाहिये । सत्संगके समय सत्संगका रस नहीं लेना है । सत्संगका सुख नहीं लेना है । सत्संगका तत्त्व समझना है, उसको धारण करना है, उसमें तल्लीन हो जाना है । उस तत्त्वके साथ आपका सम्बन्ध होना चाहिये । स्वयंका सम्बन्ध होनेसे जब अनुकूल साधन नहीं होगा, अनुकूल संग नहीं मिलेगा, अनुकूल पुस्तक नहीं मिलेगी, तो उस समय आपको अच्छा नहीं लगेगा, बुरा लगेगा । फिर आप भजन-चिन्तनमें आप-से-आप लग जाओगे । हमारा सम्बन्ध तो भगवान्‌के साथ है । तात्कालिक सुखकी अपेक्षा भगवान्‌के सम्बन्धको भीतरमें ज्यादा महत्त्व देना चाहिये । जैसे, मनुष्योंका रुपयोंमें एक आकर्षण है । रुपये कमानेमें चाहे सुख होवे, चाहे दुःख होवे, पर रुपयोंका आकर्षण वैसे ही रहता है । घाटा लगे तो भी आकर्षण रहता है और मुनाफा हो तो भी आकर्षण रहता है । इस प्रकार जिस जगह रुपयोंका महत्त्व बैठा हुआ है, उस जगह भगवान्‌का महत्त्व बैठाना चाहिये । भीतरमें रुपयोंका महत्त्व होनेसे जैसे रुपयोंकी बातें अच्छी लगती हैं, ऐसे ही भगवान्‌का महत्त्व होनेसे भगवत्सम्बन्धी बातें अच्छी लगेंगी ।

सत्संगी आदमीको पहले कम-से-कम यह सोच लेना चाहिये कि हमारा कौन है और हमारा कौन नहीं है । ध्यान देना, बड़ी मार्मिक बात है । जो हमारे साथ निरन्तर रहता है और हम जिसके साथ निरन्तर रहते हैं, वह हमारा है । हम जिसके साथ निरन्तर नहीं रह सकते और जो हमारे साथ निरन्तर नहीं रहता, वह हमारा नहीं है । अब जो हमारा है, उसको हम पहचानते क्यों नहीं ? जो हमारा नहीं है, सदा उसकी तरफ आकर्षण क्यों होता है ? कारण यह है कि जो हमारा है, सदा हमारे साथ रहता है, उसको अपना मानना छोड़ दिया और जो हमारा नहीं है, कभी हमें मिलता है कभी नहीं मिलता, उसको अपना मानना शुरू कर दिया । यहाँ गलती हुई है । धन, सम्पत्ति, वैभव, पुत्र, परिवार, मान, बड़ाई आदि कभी होते हैं और कभी नहीं होते, घटते-बढ़ते हैं, सदा साथमें नहीं रहते, पर उनको अपना मान लिया । जो अपना है, उससे विमुख हो गये, उसकी उपेक्षा कर दी ! मीराबाईने कहा कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई ।’ हमने ‘दूसरों न कोई’‒इस बातको नहीं पकड़ा, इसीलिये‘मेरे तो गिरधर गोपाल’‒इसका अनुभव नहीं हुआ । वे भगवान्‌ सबके हैं । वे प्राणिमात्रके हृदयमें रहते हैं‒
‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ’ (गीता १८/६१) ।
 उनकी तरफ हमें देखना चाहिये । मैं बहुत बार कहा करता हूँ कि भगवान्‌ सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सब व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण वृत्तियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण अवस्थाओंमें रहते हैं । ऐसा कहनेका तात्पर्य क्या है ? वे सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सबमें हैं तो हमारेमें भी हैं, सबके हैं तो हमारे भी हैं । इसलिये किसीको भी उनकी प्राप्तिसे निराश होनेकी जरूरत नहीं है । जो किसी देशमें हो, किसी देशमें न हो; किसी कालमें हो, किसी कालमें न हो; उसके साथ हमें सम्बन्ध नहीं जोड़ना है । उसका काम कर देना है, उसकी सेवा कर देनी है । उसके साथ सम्बन्ध जोड़ोगे तो दुःख पाओगे; क्योंकि वह सदा तो रहेगा नहीं ।

सत्संगके द्वारा जो सुख मिलता है, उसको मत लो । जिससे वह सुख मिलता है, उस भगवान्‌को पकड़ो । वह सुख भगवान्‌के यहाँसे आता है । वे भगवान्‌ हमारे हैं । ये शरीर-संसार हमारे नहीं हैं ।अगर शूरवीरतासे आप इस बातको स्वीकार कर लो, तो बहुत ही लाभकी बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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