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  🌹🌸🌹संत अमृत वाणी🌹🌸🌹
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🌹सत्‌-असत्‌का विवेक :

( गत ब्लॉग से आगे )

(७)

असत्‌का भाव निरन्तर अभावमें बदल रहा है । परन्तु जो असत्‌के अभावको जानता है, उस सत्‌-तत्त्वका भाव कभी अभावमें नहीं बदलता ।

उस सत्‌-तत्त्वमें सबकी स्वतःसिद्ध स्थिति है, इसीलिये अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । वह सत्‌-तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिसे सर्वथा अतीत है । असत्‌को सत्ता और महत्ता देनेके कारण मनुष्य सत्‌-तत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव नहीं कर पाता । तात्पर्य है कि असत्‌की सत्तारूपसे मान्यता ही सत्‌की स्वीकृति नहीं होने देती । यहाँ शंका हो सकती है कि जब असत्‌की सत्ता है ही नहीं तो फिर वह दीखता क्यों है ? इसका समाधान यह है कि जिन इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम्‌के द्वारा असत्‌ दीखता है, वे इन्द्रियाँ आदि भी उसी जातिके (असत्) ही हैं । तात्पर्य है कि असत्‌ (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम्) के साथ तादात्मय न करें तो असत्‌ है ही नहीं, प्रत्युत सत्‌-ही-सत्‌ है । इसलिये सत्‌-तत्व (आत्मा) ने आजतक कभी असत्‌को देखा ही नहीं ! जैसे, सूर्यने आजतक कभी अन्धकारको देखा ही नहीं ! यह ज्ञानकी दृष्टिसे कहा गया है । अगर भक्तिकी दृष्टिसे देखें तो असत्‌ संसार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति भगवान्‌की शक्ति है* । भगवान्‌की शक्ति होनेसे प्रकृति और उसका कार्य भगवत्स्वरूप ही है; क्योंकि शक्ति शक्तिमान्‌से अलग नहीं हो सकती । जैसे शरीरके गोरे या काले रंगको शरीरसे अलग करके नहीं देख सकते, जाग्रत्‌-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थाओंको शरीरसे अलग करके नहीं देख सकते, ऐसे ही प्रकृतिको भगवान्‌से अलग करके नहीं देख सकते । जैसे मनुष्य अपनी शक्ति (बल, ताकत, विद्वता, योग्यता, चातुर्य, सामर्थ्य आदि) के बिना तो रह सकता है, पर शक्ति मनुष्यके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भगवान्‌ तो शक्तिके बिना रह सकते हैं और रहते ही हैं†, पर शक्ति भगवान्‌के बिना नहीं रह सकती । तात्पर्य है कि शक्ति भगवान्‌के अधीन (आश्रित) है, भगवान्‌ शक्तिके अधीन नहीं है । शक्तिमान्‌के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होता है, पर शक्तिके बिना शक्तिमान्‌का अभाव नहीं होता । अतः भगवान्‌की शक्तिसे होनेसे प्रकृतिकी भी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव है अर्थात्‌ एक भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒
‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९), ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७/१९) ।
यह गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है, जिसमें सम्पूर्ण मतभेद समाप्त हो जाते हैं और‘वासुदेवः सर्वम्’ में अहम्‌की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं है ।

   ( शेष आगे के ब्लॉग में )

‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे

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* भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।

    अहंकार इतीयं     मे भिन्ना   प्रकृतिरष्टधा ॥
       (गीता ७/४)

‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश‒ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार‒यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है ।’

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
                                                                                       (श्वेताश्वतर॰ ४/१०)

‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये ।’

†विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकाशेन स्थितो जगत्‌ ॥ (गीता १०/४२)

          ‘मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त करके स्थित हूँ ।’

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