🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
🌹🌸🌹संत अमृत वाणी🌹🌸🌹
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹सत्-असत् का विवेक :
( गत ब्लॉग से आगे )
आश्चर्यकी बात है कि हम कामना उसकी करते हैं, जो नहीं है । भयभीत उससे होते हैं, जिसकी सत्ता ही नहीं है ।सुख नहीं रहता, पर उसकी कामनाको हम पकड़ रखते हैं । दुःख नहीं रहता, पर उसके भयको हम पकड़ रखते हैं । यह कितनी बेसमझीकी बात है ! सुखकी इच्छासे ही दुःखका भय होता है । जीनेकी इच्छासे ही मरनेका भय होता है । यदि इच्छा न रहे तो न दुःख रहेगा, न दुःखका भय रहेगा और न मरनेका भय रहेगा ।इच्छाकी निवृत्ति होते ही जिज्ञासाकी पूर्ति हो जाती है अर्थात् कुछ करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता ।
सुख पापोंका कारण नहीं है, प्रत्युत सुखकी इच्छा पापोंका कारण है* । सुखकी इच्छा ही नरकोंका दरवाजा है† । सुखदायी परिस्थितिको रखनेमें सब परतन्त्र हैं, पर सुखकी इच्छाको छोड़नेमें सब स्वतन्त्र हैं । सुखकी इच्छाको छोड़नेमें अभ्यास नहीं है, प्रत्युत विवेक है, जो वर्तमानकी वस्तु है ।जिसको रखनेमें हम परतन्त्र हैं, उसको हम छोड़ना नहीं चाहते और जिसको छोड़नेमें हम स्वतन्त्र व समर्थ हैं, उसकी इच्छाको रखना चाहते हैं‒ इससे बड़ी भूल और क्या होगा ? यह भूल ही बन्धनका, सब पाप, दुःख, सन्ताप, नरक आदिका कारण है ।
जो नहीं है, उसको ‘है’ मानकर उसको पानेकी अथवा मिटानेकी इच्छा करना और उससे भयभीत होना असत्का संग है ।उसकी उपेक्षा करना है । दशाको न देखकर सत्ताको देखना सत्का संग है ।
(१०)
दोषोंका भाव विद्यमान नहीं है और निर्दोषताका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् दोषोंकी सत्ता है ही नहीं और निर्दोषता स्वतःसिद्ध है । कोई भी दोष स्थायी नहीं रहता, आता-जाता है और उसके आने-जानेका ज्ञान जिसको होता है, वह (निर्दोष तत्त्व) स्थायी रहता है । तात्पर्य है कि दोषोंका ज्ञान दोषीको नहीं होता, प्रत्युत निर्दोषको होता है और निर्दोषतासे ही होता है । दोषोंके आने-जानेका ज्ञान तो सबको होता है, पर अपने आने-जानेका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता; क्योंकि दोष असत् हैं और हमारा निर्दोष स्वरूप सत् है । हमारेमें दोष हैं‒ऐसा मानना ही दोषोंको निमन्त्रण देना है, उनको अपनेमें स्थापन करना है । अगर दोष हमारेमें होते तो फिर जैसे हम निरन्तर रहते हैं, ऐसे ही वे भी निरन्तर रहते और उनका कभी अभाव नहीं होता । दूसरी बात, अगर दोष हमारेमें होते तो हम सर्वांशमें दोषी होते, सबके लिये दोषी होते और सदाके लिये दोषी होते । परन्तु कोई भी मनुष्य सर्वांशमें दोषी नहीं होता, सबके लिये दोषी नहीं होता और सदाके लिये दोषी नहीं होता ।
दोषोंको सत्ता हमने ही दी है, इसलिये दोषोंका आना-जाना हमें दीखता है । अगर दोषोंकी सत्ता न मानें तो दोष हैं ही नहीं‒
‘नासतो विद्यते भावः’ ।
जैसे सूर्यमें अमावस्याकी रात नहीं आ सकती, ऐसे ही नित्य स्वरूपमें अनित्य दोष नहीं आ सकते । जैसे परमात्मा निर्दोष हैं‒
‘निर्दोष हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९),
ऐसे ही उनका अंश जीवात्मा भी निर्दोष है‒
‘अविकार्योऽयमुच्यते’ (गीता २/२५),
‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज रासी ॥’ (मानस, उत्तर॰ ११७/१) ।
अतः दोषोंको अपनेमें मानना और दूसरोंमें मानना‒दोनों ही गलती है ।
( शेष आगे के ब्लॉग में )
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
________________________________
* काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
† त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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🌹: कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :🌹
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ..
🌸 जय जय " श्री राधे ".....
🌹प्यारी श्री ..... " राधे "🌹
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आश्चर्यकी बात है कि हम कामना उसकी करते हैं, जो नहीं है । भयभीत उससे होते हैं, जिसकी सत्ता ही नहीं है ।सुख नहीं रहता, पर उसकी कामनाको हम पकड़ रखते हैं । दुःख नहीं रहता, पर उसके भयको हम पकड़ रखते हैं । यह कितनी बेसमझीकी बात है ! सुखकी इच्छासे ही दुःखका भय होता है । जीनेकी इच्छासे ही मरनेका भय होता है । यदि इच्छा न रहे तो न दुःख रहेगा, न दुःखका भय रहेगा और न मरनेका भय रहेगा ।इच्छाकी निवृत्ति होते ही जिज्ञासाकी पूर्ति हो जाती है अर्थात् कुछ करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता ।
सुख पापोंका कारण नहीं है, प्रत्युत सुखकी इच्छा पापोंका कारण है* । सुखकी इच्छा ही नरकोंका दरवाजा है† । सुखदायी परिस्थितिको रखनेमें सब परतन्त्र हैं, पर सुखकी इच्छाको छोड़नेमें सब स्वतन्त्र हैं । सुखकी इच्छाको छोड़नेमें अभ्यास नहीं है, प्रत्युत विवेक है, जो वर्तमानकी वस्तु है ।जिसको रखनेमें हम परतन्त्र हैं, उसको हम छोड़ना नहीं चाहते और जिसको छोड़नेमें हम स्वतन्त्र व समर्थ हैं, उसकी इच्छाको रखना चाहते हैं‒ इससे बड़ी भूल और क्या होगा ? यह भूल ही बन्धनका, सब पाप, दुःख, सन्ताप, नरक आदिका कारण है ।
जो नहीं है, उसको ‘है’ मानकर उसको पानेकी अथवा मिटानेकी इच्छा करना और उससे भयभीत होना असत्का संग है ।उसकी उपेक्षा करना है । दशाको न देखकर सत्ताको देखना सत्का संग है ।
(१०)
दोषोंका भाव विद्यमान नहीं है और निर्दोषताका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् दोषोंकी सत्ता है ही नहीं और निर्दोषता स्वतःसिद्ध है । कोई भी दोष स्थायी नहीं रहता, आता-जाता है और उसके आने-जानेका ज्ञान जिसको होता है, वह (निर्दोष तत्त्व) स्थायी रहता है । तात्पर्य है कि दोषोंका ज्ञान दोषीको नहीं होता, प्रत्युत निर्दोषको होता है और निर्दोषतासे ही होता है । दोषोंके आने-जानेका ज्ञान तो सबको होता है, पर अपने आने-जानेका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता; क्योंकि दोष असत् हैं और हमारा निर्दोष स्वरूप सत् है । हमारेमें दोष हैं‒ऐसा मानना ही दोषोंको निमन्त्रण देना है, उनको अपनेमें स्थापन करना है । अगर दोष हमारेमें होते तो फिर जैसे हम निरन्तर रहते हैं, ऐसे ही वे भी निरन्तर रहते और उनका कभी अभाव नहीं होता । दूसरी बात, अगर दोष हमारेमें होते तो हम सर्वांशमें दोषी होते, सबके लिये दोषी होते और सदाके लिये दोषी होते । परन्तु कोई भी मनुष्य सर्वांशमें दोषी नहीं होता, सबके लिये दोषी नहीं होता और सदाके लिये दोषी नहीं होता ।
दोषोंको सत्ता हमने ही दी है, इसलिये दोषोंका आना-जाना हमें दीखता है । अगर दोषोंकी सत्ता न मानें तो दोष हैं ही नहीं‒
‘नासतो विद्यते भावः’ ।
जैसे सूर्यमें अमावस्याकी रात नहीं आ सकती, ऐसे ही नित्य स्वरूपमें अनित्य दोष नहीं आ सकते । जैसे परमात्मा निर्दोष हैं‒
‘निर्दोष हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९),
ऐसे ही उनका अंश जीवात्मा भी निर्दोष है‒
‘अविकार्योऽयमुच्यते’ (गीता २/२५),
‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज रासी ॥’ (मानस, उत्तर॰ ११७/१) ।
अतः दोषोंको अपनेमें मानना और दूसरोंमें मानना‒दोनों ही गलती है ।
( शेष आगे के ब्लॉग में )
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* काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
† त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
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