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🌹🌸🌹संत अमृत वाणी🌹🌸🌹
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹 बन्धन कैसे छूटे ?
लोगोंने यह मान रखा है कि बन्धन नित्य है, उससे छूटनेपर मुक्ति होगी । मूलमें यह भूल हुई है । वास्तवमें बन्धन है ही नहीं । अगर बन्धन होता तो मुक्ति किसीकी भी नहीं होती; क्योंकि सत् वस्तुका अभाव नहीं होता‒
‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) ।
बन्धन सत् होता तो फिर उसका अभाव होता ही नहीं । अतः बन्धन है नहीं, केवल दीखता है । दीखता तो दर्पणमें मुख भी है, पर वहाँ मुख होता है क्या ? दर्पणमें मुख दीखता है तो उसको सामनेसे पकड़ लो, नहीं तो दर्पणके पीछेसे पकड़ लो ! है ही नहीं तो उसको पकड़ें क्या ! ऐसे ही इन सांसारिक पदार्थोंमें अपनापन दीखता है । यह शरीर, कुटुम्बी, धन-सम्पत्ति, वैभव आदि मेरा है‒ऐसा दीखता है । परन्तु आजसे सौ वर्ष पहले ये आपके थे क्या ? और सौ वर्षके बाद ये आपके रहेंगे क्या ? यह मेरापन पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा तथा बीचमें भी दिन-प्रतिदिन मिट रहा है, तो यह सच्चा कैसे हुआ ? दर्पणमें पहले मुख नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और इस समय भी दीखता है, पर है नहीं । जो प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है, वह ‘है’ कैसे हुआ ? जो नहीं है, उसको ‘है’ मान लिया । ‘नहीं’ को ‘है’ मानना छोड़ो तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है । मेरापन पहले नहीं था तो मुक्ति थी, बादमें नहीं रहेगा तो मुक्ति रहेगी और बीचमें प्रतिक्षण छूट रहा है तो मुक्ति ही है । अतः बन्धन कृत्रिम है, केवल माना हुआ है और मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।अब इसमें देरी क्या लगे ? बताओ ।
अगर आपने मान लिया कि बन्धन छूटेगा नहीं, तो अब वह छूटेगा ही नहीं ! क्योंकि आप परमात्माके अंश हैं । आप बन्धनको पक्का मान लोगे तो वह कैसे छूटेगा ? बन्धन तो अभी है और मुक्ति आगे होगी‒इस तरह आपने बन्धनको नजदीक और मुक्तिको दूर मान लिया, तो अब बन्धन जल्दी कैसे छूट जायगा ? वास्तवमें तो बन्धन पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और अब भी नहीं है; तथा मुक्ति पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अब भी है ।
देखो, हरेक व्यक्तिका माँमें बड़ा स्नेह होता है । वह स्नेह आज वैसा है क्या ? नहीं है । यह संसारके स्नेहका नमूना है ।आप व्यापार करते हो तो पहले सब माल न देखकर उसका नमूना देखते हो । उस नमूनेसे सब मालका पता लग जाता है । स्त्री मेरी है, पुत्र मेरा है, धन मेरा है, घर मेरा है‒ये सब अब प्रिय लगते हैं तो बालकपनमें माँ कम प्रिय लगती थी क्या ? माँके बिना रह नहीं सकते थे, रोने लगते थे, और माँकी गोदीमें जानेपर राजी हो जाते थे कि माँ मिल गयी ! पर माँके साथ आज वैसा स्नेह है क्या ? ऐसे कई भाग्यशाली है, जिनकी माँ अभी है; परन्तु माँके प्रति पहले जो खिंचाव था, वह खिंचाव अब नहीं है ।इस नमूनेसे संसारभरकी परीक्षा हो जाती है कि अभी संसारमें जो खिंचाव है, यह भी रहनेवाला नहीं है ।
श्रोता‒महाराजजी ! हमारा स्नेह पहले माता-पितामें, फिर स्त्रीमें, फिर पुत्रमें, फिर पौत्रमें‒इस प्रकार इधर-इधर हो रहा है !
स्वामीजी‒ तो नया स्नेह मत करो ना! पुराना स्नेह तो छूट रहा है, मुक्ति तो हो रही है ।
श्रोता‒हम तो नहीं करना चाहते ।
स्वामीजी‒आप नहीं करना चाहते तो आपसे जबरदस्ती कौन करता है ! कि नया स्नेह लगाओ बताओ ? पुराना स्नेह तो धीरे-धीरे छूट जायगा, आप नया स्नेह मत करो ।
( शेष आगे के ब्लॉग में )
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :🌹
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ..
🌸 जय जय " श्री राधे ".....
🌹प्यारी श्री ..... " राधे "🌹
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🌹🌸🌹संत अमृत वाणी🌹🌸🌹
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बन्धन सत् होता तो फिर उसका अभाव होता ही नहीं । अतः बन्धन है नहीं, केवल दीखता है । दीखता तो दर्पणमें मुख भी है, पर वहाँ मुख होता है क्या ? दर्पणमें मुख दीखता है तो उसको सामनेसे पकड़ लो, नहीं तो दर्पणके पीछेसे पकड़ लो ! है ही नहीं तो उसको पकड़ें क्या ! ऐसे ही इन सांसारिक पदार्थोंमें अपनापन दीखता है । यह शरीर, कुटुम्बी, धन-सम्पत्ति, वैभव आदि मेरा है‒ऐसा दीखता है । परन्तु आजसे सौ वर्ष पहले ये आपके थे क्या ? और सौ वर्षके बाद ये आपके रहेंगे क्या ? यह मेरापन पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा तथा बीचमें भी दिन-प्रतिदिन मिट रहा है, तो यह सच्चा कैसे हुआ ? दर्पणमें पहले मुख नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और इस समय भी दीखता है, पर है नहीं । जो प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है, वह ‘है’ कैसे हुआ ? जो नहीं है, उसको ‘है’ मान लिया । ‘नहीं’ को ‘है’ मानना छोड़ो तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है । मेरापन पहले नहीं था तो मुक्ति थी, बादमें नहीं रहेगा तो मुक्ति रहेगी और बीचमें प्रतिक्षण छूट रहा है तो मुक्ति ही है । अतः बन्धन कृत्रिम है, केवल माना हुआ है और मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।अब इसमें देरी क्या लगे ? बताओ ।
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देखो, हरेक व्यक्तिका माँमें बड़ा स्नेह होता है । वह स्नेह आज वैसा है क्या ? नहीं है । यह संसारके स्नेहका नमूना है ।आप व्यापार करते हो तो पहले सब माल न देखकर उसका नमूना देखते हो । उस नमूनेसे सब मालका पता लग जाता है । स्त्री मेरी है, पुत्र मेरा है, धन मेरा है, घर मेरा है‒ये सब अब प्रिय लगते हैं तो बालकपनमें माँ कम प्रिय लगती थी क्या ? माँके बिना रह नहीं सकते थे, रोने लगते थे, और माँकी गोदीमें जानेपर राजी हो जाते थे कि माँ मिल गयी ! पर माँके साथ आज वैसा स्नेह है क्या ? ऐसे कई भाग्यशाली है, जिनकी माँ अभी है; परन्तु माँके प्रति पहले जो खिंचाव था, वह खिंचाव अब नहीं है ।इस नमूनेसे संसारभरकी परीक्षा हो जाती है कि अभी संसारमें जो खिंचाव है, यह भी रहनेवाला नहीं है ।
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स्वामीजी‒आप नहीं करना चाहते तो आपसे जबरदस्ती कौन करता है ! कि नया स्नेह लगाओ बताओ ? पुराना स्नेह तो धीरे-धीरे छूट जायगा, आप नया स्नेह मत करो ।
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