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   🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹

❄ विनाशीका आकर्षण कैसे मिटे ?

      प्रश्न‒महाराजजी ! सुनते हैं, समझते हैं, जानते हैं फिर भी उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों, व्यक्तियोंमें आकर्षण हो जाता है । यह आकर्षण कैसे मिटे ?

      उत्तर‒देखिये, आपको यह पता तो लगा है । नहीं तो आज मनुष्योंको यह बात जँचती ही नहीं है कि ये वस्तुएँ, पदार्थ, व्यक्ति उत्पत्ति-विनाशशील हैं और मैं ‘स्वयम्’ उत्पत्ति-विनाशरहित हूँ । इतने अलगावका पता लगना कम बात नहीं है । लोग तो एक ही मानते हैं । उनको इस बातका पता नहीं है कि हम रहनेवाले हैं और ये उत्पन्न नष्ट होनेवाले हैं । उनका तो ‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः’ (गीता १६/११) । कामना करना और भोग भोगना यही निश्चय होता है । आपने इतना देखा तो है कि भाई ! ये उत्पत्ति-विनाशशील हैं । ये हमारे साथ नहीं रह सकते, हम इनके साथ नहीं रह सकते, ऐसा जो खयाल हो गया, यह काम कम नहीं हुआ है । यह भी आप साधारण मनुष्योंमें देखो तो आपको पता लगे । पढ़े-लिखे लोगोंके साथ बैठो तो पता लगे आपको । आप अपनी अवस्थापर विचार करो ।

      जैसे, पहले जब मैं आनन्द-आश्रममें आया था, उस समय सुबह सत्संगकी बाते होती थीं । उस समय भी आप आते थे । उस समय आपकी क्या धारणा थी और आज आपकी क्या धारणा है ?

        श्रोता‒महाराजजी ! अन्तर तो बहुत हुआ है ।

स्वामीजी‒बहुत हुआ है न ! तो दो बातें हैं इसमें, पहली बात इतना अन्तर हुआ है तो आपको लाभ हो रहा है और लाभ जरूर होगा; परन्तु अब विचार पक्का कर लो कि हमें यही काम करना है । दूसरी बात यह है कि इतने लाभामें सन्तोष नहीं करना है; क्योंकि लाभ हुआ है हमारे; परन्तु जैसा लाभ होना चाहिये था, वैसा नहीं हुआ । तो हमारा उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंमें आकर्षण होता है और हम स्वयं उत्पत्ति-विनाशशील नहीं है । शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि जितनी प्राकृतिक सामग्री हैं, वे परिवर्तनशील हैं; परन्तु हम स्वयं उत्पत्ति-विनाशशील नहीं है । यह बात आती है न समझमें ! इस विषयको गहराईसे समझो, बहुत लाभकी बात है !

      हमारा जो होनापन है न, ‘मैं हूँ’ । इस होनापनकी तरफ आप ध्यान दें । शास्त्रकी तथा सन्तोंकी दृष्टिके अनुसार पहले भी मैं था और अगाड़ी भी मैं रहूँगा; क्योंकि पहले जन्ममें किये हुए कर्मोंका फल-भोग अभी हो रहा है और इस जन्ममें जितने कर्म किये जाते हैं इन कर्मोंका फल-भोग अगाड़ी जन्ममें होगा । तो पीछेका जन्म, अगाड़ीका जन्म और यह जन्म‒ये तीनों जन्म हमारे विचारसे सामने दीखते हैं और हम तीनों जन्मोंमें वही रहते हैं । तो वास्तवमें ‘मैं नित्य हूँ और ये जन्म अनित्य हैं’ इतनी बात तो समझमें आ ही जानी चाहिये । अब अपना जो होनापन है ‘मैं हूँ’, इसकी तरफ खयाल करना है कि ‘मैं’ क्या हूँ ?, तो ‘मैं हूँ’ यह जो सत्ता है‒मेरा होनापन, यह मेरा स्वरूप है । अभी इसका स्पष्ट अनुभव न हो तो भी आप समझ लो कि मेरा जो होनापन है, वह जाग्रतमें भी है, स्वप्नमें भी है और सुषुप्तिमें भी है । तीन अवस्थाएँ होती हैं‒जाग्रत्‌-अवस्था, स्वप्न-अवस्था और सुषुप्ति-अवस्था । ये अवस्थाएँ बदलती रहती हैं और ‘मैं’ तीनों अवस्थाओंमें एक रहता हूँ, मेरेमें परिवर्तन नहीं होता ।औ

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

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