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   🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹

❄ सन्त और उनकी सेवा :

      ‘तस्मिस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र ४१) ।

सन्त भगवान्‌से अपना अलग अस्तित्व नहीं मानते,इसलिये उनमें स्वार्थकी गन्ध भी नहीं रहती । भगवान्‌से अलग उनकी कोई इच्छा नहीं, वे स्वाभाविक ही भगवान्‌की इच्छामें अपनी इच्छा, उनकी रुचिमें अपनी रुचि मिलाये रहते हैं । अतः उनके हरेक विधानमें परम सन्तुष्ट रहते हैं ।

      सन्त भगवान्‌पर ही निर्भर रहते हैं ।‘जाही बिधि राखै राम, ताही बिधि रहिये’‒को वे अपने जीवनमें अक्षरशः चरितार्थ कर लेते हैं और इस प्रकार भगवान्‌के विधानानुसार रहनेमे वे बड़े प्रसन्न होते हैं । हमलोग भी भगवान्‌के विधानानुसार ही रहते हैं । (क्योंकि भगवान्‌की इच्छाके विरुद्ध एक पत्ता भी नहीं हिलता ।) पर उसमें हमारी प्रसन्नता नहीं होती, हमें बाध्य होकर रहना पड़ता है । यदि हममें मन-इन्द्रियाँके प्रतिकूल भगवद्‌विधानको बदलनेकी शक्ति-सामर्थ्य होती तो हम उसे अपने अनुकूल बना लेते । परन्तु क्या करें, हमारा वश नहीं चलता, तो भी शक्ति-सामर्थ्य न रहनेपर भी उससे बचनेका असफल प्रयत्न तो निरन्तर करते ही रहते हैं । पर सन्तमें ऐसी बात नहीं है, सन्तके मनमें भगवान्‌के विधानानुसार बरतनेमें कुछ भी विचार नहीं होता; प्रत्युत भगवान्‌के विधानके अनुसार प्राप्त परिस्थिति उसके लिये अनुकूल-से-अनुकूल प्रतीत होती है तथा उसके हृदयमें सदा-सर्वदा भगवान्‌के विराजमान रहनेके कारण उसपर प्रतिकूलताका कोई असर नहीं होता ।

      भगवान्‌ स्वयं कहते हैं‒

समोऽहं सर्वभूतेषु   न  मे  द्वेष्योऽस्ति  न  प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
                                                   (गीता ९/२९)

      ‘अर्जुन ! मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, न कोई मेरा प्रिय है, न अप्रिय है; परन्तु जो मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’विचार कर देखें तो यह बात ठीक समझमें आ जाती है । जैसे एक अच्छा मकान है, उसमें किसीका कब्जा-दखल नहीं है, अतएव अच्छे पुरुषको उसमें स्वाभाविक ही प्रसन्नता होगी । इस प्रकार सन्तके अहंता-ममतासे रहित निर्मल अन्तःकरणमें भगवान्‌ प्रकटरूपसे रहकर बड़े प्रसन्न होते हैं; क्योंकि वहाँ उनके रहनेमें कोई किसी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं लगता, विघ्न नहीं डालता । भगवान्‌ ऐसे घरमें बड़े निःसंकोचभावसे रहते हैं । श्रीरामचरितमानसमें गोस्वामी तुलसीदासजी कहा है‒

जाहि न चाहिये कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।

बसहु  निरंतर  तासु  मन   सो   राउर निज  गेहु ॥

      इस प्रकार सन्तके हृदयमें भगवान्‌का वास होनेसे, वह जो कार्य करता है, वह भी भगवान्‌ ही करते हैं, वह जो भी सोचता है, वह भगवान्‌ ही सोचते हैं; इत्यादि कथन सर्वथा सत्य है ।

      सन्त और भगवान्‌के विषयमें तीन प्रकारकी बातें मिलती हैं‒ (१) दोनोंमें कुछ अन्तर नहीं ।

संत-भगवंत    अंतर   निरंतर     नहीं

किमपि मति मलिन कह दास तुलसी ॥

                                         (विनयपत्रिका)

     सन्त ही भगवान्‌ हैं और भगवान्‌ ही सन्त हैं अर्थात्‌ सन्तोंका भगवान्‌के अतिरिक्त कोई पृथक अस्तित्व ही नहीं रहता । केवल भगवान्‌ ही रह जाते हैं । किसने कहा भी है ‒

ढूँढ़ा  सब   जहाँमें  पाया   पता   तेरा  नहीं ।

जब पता तेरा लगा तो अब पता मेरा नहीं ॥

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे

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