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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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   🌹🔱💧संत अमृत वाणी💧🔱🌹

🌟 गीताका तात्पर्य :

(गत ब्लॉगसे आगेका)

इसी तरह ईश्वरके विषयमें कई कहते हैं कि यह सगुण है, कई कहते हैं कि यह निर्गुण है, कई कहते हैं कि यह साकार है, कई कहते हैं कि यह निराकार है कई कहते हैं कि यह द्विभुज है, कई कहते हैं कि यह चतुर्भुज है, कई कहते हैं कि यह सहस्रभुज है, कई कहते हैं कि यह विराट्‌रूप है । कई कहते हैं कि यह व्यक्त है, कई कहते हैं कि यह अव्यक्त है, कई कहते हैं कि यह अवतार लेता है, कई कहते हैं कि यह अवतार नहीं लेता; आदि-आदि । इसी तरह जगत्‌के विषयमें कई कहते हैं कि यह अनादि और अनन्त है, कई कहते हैं कि यह अनादि और सान्त है, कई कहते हैं कि यह अनादि और परिवर्तनशील अर्थात्‌ प्रवाहरूपसे रहनेवाला है आदि-आदि । गीताने इन सब वाद-विवादोंमें न पड़कर सीधी बात बतायी है कि तुम्हारे सामने दीखता है, यह ‘जगत्’ है । हरेक मनुष्यको ‘मैं हूँ’‒ऐसा अनुभव होता है, यह‘जीव’ है । जो जड़-चेतन, अपर-परा सबका स्वामी है, वह ‘ईश्वर’ है* । गीताकी इस बातमें सभी दार्शनिक एकमत हैं । इसमें भी एक विलक्षण बात है कि यदि कोई ईश्वरको न माने तो भी गीताके अनुसार चलनेसे उसका कल्याण हो जायगा† !

गीताने व्यवहारमें परमार्थकी विलक्षण कला बतायी है, जिससे प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें रहते हुए, निषिद्धरहित सब तरहका व्यवहार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके‡ । दूसरे ग्रन्थ तो प्रायः यह कहते हैं कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधु हो जाओ; क्योंकि व्यवहार और परमार्थ‒दोनों एक साथ नहीं होंगे । परन्तु गीता कहती है कि आप जहाँ हैं, जिस मतको मानते हैं, जिस सिद्धान्तको मानते हैं, जिस धर्म, सम्प्रदाय आदिको मानते हैं, उसीको मानते हुए गीताके अनुसार चलो तो कल्याण हो जायगा । तात्पर्य है कि कोई भी मनुष्य चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई हो, चाहे यहूदी हो, चाहे पारसी हो, वह किसी भी मतका अनुसरण करनेवाला हो, किसी भी सिद्धान्तको माननेवाला हो, यदि उसका उद्देश्य अपना कल्याण करनेका है तो उसको भी गीतामें अपने कल्याणकी पूरी सामग्री मिल जायगी ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे

        *न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

   न चैव न भविष्यामः      सर्वे वयमतः परम् ॥  (२/१२)              
किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे‒यह बात भी नहीं है और इसके बाद ये सभी (मैं, तू और राजालोग) नहीं रहेंगे‒यह बात भी नहीं है ।’

द्वाविमौ पुरुषौ लोके     क्षरश्चाक्षर एव च ।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः     परमात्मेत्युधाहृतः ।

यो लोकत्रयमाविश्य   बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि     चोत्तमः ।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥
                    (गीता १५/१६-१८)

इस संसारमें क्षर (नाशवान्‌) और अक्षर (अविनाशी)‒ये दो प्रकारके पुरुष हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान्‌ और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है । उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नामसे कहा गया है । वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है । मैं क्षरसे अतीत हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्द हूँ ।’

                       † देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।

परस्परं भावयन्तः   श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
                        (गीता ३/११)

अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवातालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें । इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे ।’

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
                         (गीता १८/४५)

‘अपने-अपने कर्तव्यमें तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है ।’

‡सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्‌व्यपाश्रयः ।

   मत्प्रसादादवाप्नोति      शाश्वतं  पदमव्ययम् ॥
                          (गीता १८/५६)

‘मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब विहित कर्म करते हुए भी मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है ।’

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