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  🌹🌸🌹संत अमृत वाणी🌹🌸🌹
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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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🌹सत्‌-असत्‌ का विवेक :

( गत ब्लॉग से आगे )

विचार करें, वस्तु पासमें रहते हुए भी हम रहते हैं और वस्तु पासमें न रहते हुए भी हम वही रहते हैं । व्यक्ति साथ में रहते हुए भी हम रहते हैं और व्यक्ति साथ में न रहते हुए भी हम वही रहते हैं । क्रिया करते समय भी हम रहते हैं और क्रिया न करते समय भी हम वही रहते हैं । इन दोनों अवस्थाओं का अनुभव सब को है । इससे सिद्ध होता है कि हमारा अस्तित्व (होनापन) वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके अधीन नहीं है । हमें वस्तु, व्यक्ति और क्रिया की अपेक्षा, आवश्यकता भी नहीं है, प्रत्युत उनको ही हमारी आवश्यकता है । अतः हम स्वतन्त्र हैं । हम वस्तु की उत्पत्ति को भी देखते हैं और विनाश को भी देखते हैं, व्यक्ति के संयोग को भी देखते हैं और वियोग को भी देखते हैं, क्रियाके आरम्भ को भी देखते हैं और अन्त को भी देखते हैं । वस्तु, व्यक्ति और क्रिया‒तीनों के अभाव का तो हमें अनुभव होता है, पर अपने अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता । अपने इस अनुभव में नित्य-निरन्तर स्थित रहना साधक का काम है । यह अभ्यास नहीं है, प्रत्युत जागृति है । वस्तु, व्यक्ति और क्रिया का संयोग अनित्य है, पर वियोग नित्य है । नित्यको स्वीकार करनेसे नित्य-तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है । तात्पर्य है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रिया से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर सर्वत्र परिपूर्ण उस परमात्मसत्ता में स्वतः स्थिति हो जाती है, जिसके लिये गीताने कहा है‒

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिंना । (गीता ९/४)

         ‘यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है ।’

(१२)

असत्‌ की सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है‒इसका तात्पर्य है कि जो भी सत्ता दीखती है, वह असत्‌ की न होकर सत्‌-तत्त्व की ही है । इस सत्ता को अस्वीकार कोई कर ही नहीं सकता । कोई परमात्मा की सत्ता मानता है, कोई आत्मा की सत्ता मानता है और कोई जगत्‌ की सत्ता मानता है । अगर कोई कहे कि मैं किसी की भी सत्ता नहीं मानता तो वह अपनी सत्ता तो मानता ही है ! तात्पर्य यह है कि किसी-न-किसी रूपमें सत्‌-तत्त्व (‘है’) की सत्ता को सभी स्वीकार करते हैं, भले ही वे उस का नाम कुछ भी रख दें । सत्ता का निषेध करने से अपना निषेध हो जायगा, जबकि अपने अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता ।

(१३)

       जिसका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ जो प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदि में विद्यमान है, उस तत्त्व की प्राप्ति कुछ करनेसे नहीं होती । कारण कि जो विद्यमान है, उस की अप्राप्ति होती ही नहीं । हम कुछ करेंगे, तब प्राप्ति होगी‒यह भाव देहाभिमान को पुष्ट करने वाला है । प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और समाप्ति होती है; अतः क्रिया करने से उसी की प्राप्ति होगी, जो विद्यमान नहीं है । परन्तु प्रकृति के साथ सम्बन्ध होने के कारण प्रत्येक प्राणी में क्रिया का वेग रहता है, जो उस को क्रिया रहित नहीं होने देता* । क्रिया का वेग शान्त करनेके लिये यह आवश्यक है कि जो नहीं करना चाहिये, उसको न करें और जो करना चाहिये, उसको निर्मम तथा निष्काम होकर करें अर्थात्‌ अपने लिये कुछ न करें, प्रत्युत केवल दूसरेके हित के लिये ही करें† । अपने किये करने से क्रिया का वेग कभी समाप्त नहीं होगा; क्योंकि अपना स्वरूप नित्य है और कर्म अनित्य हैं । अतः दूसरों के हित के लिये कर्म करने से क्रिया का वेग शान्त होकर प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और सब देश, काल आदि में विद्यमान सत्‌-तत्त्व प्रकट हो जायगा, उसका अनुभव हो जायगा ।

     ( शेष आगे के ब्लॉग में )

‒ ‘अमरता की ओर’ पुस्तक से
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  * न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

      कार्यते ह्यवशः  कर्म       सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
                                                 (गीता ३/५)

‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृतिके) परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं ।’

    † न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं   पुरुषोऽश्नुते ।

        न च संन्यसनादेव   सिद्धिं समधिगच्छति ॥
                                                        (गीता ३/४)

       ‘मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है ।’

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । (गीता ६/३)

       ‘जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण है ।’

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